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एक बार फिर से हम कांग्रेस सरकर को घेर कर खड़े हो गए है, आम budget और रेल budget से हमारी उम्मेदे ही शायद ज्यादा थी . खैर कोई बात नहीं , हम भारतीयों ने शायद झेलना सिख लिया है,अब तोह हमने खुद को इस आदत के अनुसार ढाल लिया है.
ज्यादा नहीं पर एक साल पुरानी ही बात है, जब देश ने एक साथ आ कर एक क्रन्तिकारी आन्दोलन को जन्म दिया था. फिर कुछ महीनो बाद उस आन्दोलन को उड़ान भी दी गयी ,परन्तु अपने अंतिम पड़ाव पर पहुचने से पहले ही ये धराशाही हो गया और शायद आज तक नहीं उठ पाया है.
जी हाँ मैं बात उसी लोकपाल बिल की कर रहा हूँ ,जो लोकसभा से निकल कर राज्य सभा में थम गया था. २९ दिसम्बर को देश टकटकी लगाये , जिज्ञासा भरी निगाहों से इसके पारित होने की प्रतीक्षा कर रहा था, और आज तक करता रह गया . पर शायद ये प्रतीक्षा अब नौम्मिदगी में बदल चुकी है , हमारे सामने कई और ऐसे मुद्दे आ चुके है जिनकी वजह से आज हम इस ओर से दूर चले गए है .
उस समय ये कहा गया था की इसको पास करने का समय शायद अब फ़रवरी में आएगा , सदन चालू हुआ पर बिल को हम और हमारे सुभचिन्तक नेता सभी भूल गए ,लोकपाल बिल जो अपने जीवन के चालीस साल बिना पारित हुआ बिता चूका है वो शायद अपना एक और जन्मदिन ऐसे ही मनायेगा ,शायद हमें अपने किये हुए परिश्रम को फिर से याद करने की ज़रूरत है , अन्यथा हम इस कहावत के अब तोह अदि हो चुके हैं ” नेकी कर दरिया में डाल “.
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